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Showing posts from December, 2011

वो सतरंगी स्वेटर

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2006 में हम लद्दाख गए तो यह सोचा नहीं था कि वो मेरी निटिंग का ऐतिहासिक ट्रिप बन जाएगा | मैं हमेशा की तरह अपनी उन सलाई तो लेकर ही गयी थी | वहाँ एक दिन बाज़ार में इन्द्रधनुषी स्वेटर देखा कर मन मचल गया | पास जाकर देखा तो हाथ का बना हुआ था | मैंने उन की दूकान की खोज की | वोव ! वहातो वही सात रंग के उन थी | मैंने झट से इ ली | और घर पहुंचाते ही सबसे पहले आस्था का स्वेटर बनाया जो सबको बेहद पसंद आया | अब मुझे इश्वर की कृपा का नहीं मालूम था कि २००८ में स्पंदन आया | और फिर क्या था मैंने उस बची हुई लद्दाखी ऊन का स्वेटर बनाया | हुड वाला यह स्वेटर मेरे लिए अमूल्य था | जो बाद में बिंदिया पत्रिका में प्रकाशित हुआ |

पूसी कैट

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खिलौना बनानेका यह पहला अनुभव तो नहीं था | बरसो पहले यानी करीबी २५ साल पहले एक टेडी बार बनाया था | पर उसकी फोटो नहीं है मेरे पास | इस बार पूसी कैट बना कर फिर से शुरुआत की | गोल सलाई पर जुराब की तरह बुनते हुए नीचे से शुरू किया | गर्दन पर फंदे घटाए ,चहरे पर कुछ फंदे घटाए और कानों के लिए दो हिस्सों में बाँट दिया | पूंछ को अलग से बुनकर जोड़ा | मूंछे और आँखे कढाई करके उकेरी | लो रूई भर कर तैयार हमारी पूसी कैट |

कश्मीरी कली

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अपने बेटी आस्था का मैं ऐसा स्वेटर बनाना चाहती थी जो कशमीर के फिरन का लुक दे | उसके किनारों पर और गले पर स्लीव्ज़ पर भी कुछ छोटा-छोटा डिजाइन हो | आस्था छोटी थी इस लिए मैंने लाल रंग चुना और उसे ऑफ़ व्हाईट कलर से छोटी कैरी बनाई | लम्बे कुरते में साइड जेब के लिए भी जगह छोडी |गले के बीच पत्ती के साइड में कैरी भी बनाई और बटन भी लगाए फिर उसके नीचे पाजामे भी बुनी | इसका काफ़ी हिस्सा मुम्बई की ट्रेन में और चौपाटी बीच पर बुना गया जब मैं राजभाषा की बैठक में मुम्बई गई थी | आस्था ने जब इसे पहना तो वो जेब में हाथ डालकर इठला गई | छोटी सी गुडिया कश्मीरी कली से कम नहीं लगा रही थी |

डॉल के स्वेटर पर डॉल

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मेरी भतीजी प्रकृति बिलकुल डॉल जैसी लगती है | जब उसका स्वेटर बनाना था तो समझ में नही आ रहा था कि क्या डिजाइन बनाऊँ | फिर एकदम से आइडिया क्लिक हुआ कि क्यों ना डॉल ही बना ली जाए | कलर भी सोफ्ट चुने डॉल की तरह | पहले मैंने ग्राफ पर डॉल बनाई फिर उसे क्रोस से भरा और उन सलाई से उसके स्वेटर पर डॉल बना डाली | आखिर डॉल का स्वेटर जो था |

खरगोश सी बूटीज़

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नन्हे के लिए बूटीज़ बनानी हो तो क्यों ना उसके पसंद की ही बना कर दे दी जाएं | मेरा बेटा स्पंदन नंगे पाँव ही घूमता है | मैंने सब उपाय कर लिए पर कोइ सफल नहीं हुआ | फिर मैंने सोचा क्यों ना उसे ऊन के जूते बना दूं और उसे थोड़ा आकर्षक बना दूं | मैंने परमपरागत रूप से बार्डर बना कर फंडों को तीन हिस्सों में बांटा और उसके बीच के हिस्से को तल्ले तक लंबा बनाया | अब साइड के फंदों को थोड़ा बुनकर सभी हिस्सों को सफाई से सिल दिया | अब बारी थी उसे सजाने की | क्रोशिए से फ्रंट -पर फंदे खींचे और सलाई से कान की शेप में बुन दिया | मुंह और आँखों के लुक के लिए बटन टांक दी | लो अब तो तैयार पहनने के लिए | भला कौन बच्चा ऐसे जूते नहीं पहनना चाहेगा |

हाहाकार

हाहाकार मचा है मन में मै कौन ? मैं क्यों ? किसके निमित्त ? क्या करने आई हूँ पृथ्वी पर ? प्रश्न दर प्रश्न बढती जाती हूँ दिल के हर कोने में पाती हूँ मचा है हाहाकार ---------------- चलती जाती हूँ सड़क पर शोर गाड़ियों का घुटन धुँए की चिल्ल-पौं होर्न की सबको जल्दी आगे जाने की उलझे हैं सारथी हर गाड़ी के देते हुए गालियाँ एक दूसरे को देख रही हूँ मैं एयरकंडीशन कार में बैठी मचा है सड़क पर हाहाकार -------------------- चलती हूँ हाई-वे पर दौड़्ते दृश्यों में एक बस्ती के बाहर ज़मीन से ऊपर सिर उठाए नल के नीचे बाल्टियों की कतारें अपनी बारी के इंतज़ार मे तितर-बितर लोग उलझते एक दूसरे से कि नहीं है सहमति एक घर से दो बाल्टी की मेरे घर के बाहर एक बालिश्त घास का टुकड़ा पी जाता है ना जाने कितना गैलन पानी और यहाँ बस्ती में एक बाल्टी पानी के लिए मचा है हाहाकार -------------- पिज़्ज़ा पर बुरकने के लिए चीज़ केक को सजाने के लिए क्रीम डेयरी बूथ पर रोकी कार मैंने देखकर लम्बी कतार सड़क तक थोड़ी धक्कमपेल में ठिठकी मैं कोई झगड़ा कोई फसाद आशंका मन में कतार के सबसे पीछे खड़े मफलर में लिपटे चेहरे को पूछा “आज क्या है इस डेयरी पर ” मूँग