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Showing posts from November, 2011

क्या छतें साफ नहीं हो सकती

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इतने खूबसूरत शहर की सड़के दोनों तरफ ताज़ा पुती दीवारें चौराहों और नुक्कड़ों पर खूबसूरत हवेलियाँ लक-दक शीशों के पार दिखती मॉल की चमक जिसके चारों तरफ मंडराते आधुनिक पोशाकों में संवरे लोग महज 10 रुपये में ए.सी. बसों का सफर करीने से सजी दुकानें फ्लैटों की बालकनी में बच्चों के बाल संवारती माँए उन्हीं फ्लैटों में अपने खूबसूरत आस-पास के अहसास में सराबोर एक दिन चढ गई सीढीयाँ उस छत की जहाँ से पूर शहर का नज़ारा दिख रहा था मुझे पर वो हवेलियाँ, वो मॉल ,वो बसें सिर्फ बिन्दु-सी दिखाई दे रही थी दिख रहा था तो बस छतों पर पड़ा बेतरतीब कचरा कभी ना काम आने वाली टूटी हुई कुर्सियाँ गुलदान पुताई के पंछे पुरानी तस्वीरों के बोर्ड टूटी ईंटें घड़े के ठीकरे जंग लगे मटके के स्टैण्ड, टूटी बाल्टी और भी ना जाने क्या-क्या तमाम छतों पर पड़े सामान का नज़ारा लग रहा था भयानक मै घबरा कर उतर आई सीढीयाँ दम फूलने लगा हाँफ रही थे मैं कहाँ गई शहर की खूबसूरती मैं जो चिल्लाती हूँ बच्चों पर वो सही है कि बैठक साफ करने से नहीं आती है सफाई दरअसल हम सफाई की शुरुआत बैठक से करते हैं और तमाम कचरा गलियारे बेडरूम किचन गैरज और फिर छत की तरफ बुहार द

बैठक बन्द रहती है मिट्टी के डर से

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वो बैठक का नज़ारा ज़िसमें बाबा के दोस्त जमा करते थे घण्टॉं और मै भी उसका हिस्सा हुआ करती थी फुदकती हुई कभी इस कुर्सी त्तो कभी उस मूढे कभी प्लेट में पड़े चिवड़े पर झपटती तो कभी बाबा के गिलास से आम का पाना पीती कुछ बड़ी हुई तो सपने ईज़ाद हुए माँ से कहने लगी सोफे लाओ ना अपनी बैठक में और गुलदान भी जैसे मेरी सहेली के घर पर हैं ताकि हमारी बैठक भी महक उठे फूलों से माँ-बाबा ने मुस्कुरा कर टाल दिया सपने कुछ अंकुरित हुए ना सही सोफा ना सही गुलदान सरकण्डी के मूढों को ही सजाने लगी माँ की पुरानी साड़ी से अपने पुराने सूटों से बनाने लगी कुशन और मैं खुद काढने लगी कशीदे और सजने लगी बैठक अब मेहमान आते तो मैं ट्रे में करीने से ले जाती गिलास आम के पाने से भरे हुए एक प्लेट मे बिस्किट सजे हुए ओम अंकल मेरी प्रशंसा करते नफाज़त की रामप्यारी आँटी मेरा कशीदा निहारती मैं सकुचा जाती उनके जैसे सोफे तो ना थे हमारी बैठक में सुन्दर बैठक के सपने बुनते और पनपते रहे उन सपनों के जंजाल को लिए मैं ससुराल की चौखट पर आ गई इंटीरियर वास्तु फेंगशुई जैसी कलाओं की बारीकियाँ सीखती रही सजाती रही अपनी बैठक कलात्मक सोफे काँच के मेज महंगे गुलदा

हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ

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हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ कि हमारे पड़ौस का बीमार बच्चा हो जाए चंगा चहकता चिड़ियों सा और खेलने लगे आँगन में अपने ताकि हमारे आँगन भी उसके चहकने की आवाज़ें आने लगें छन कर और हमारे आँगन का बच्चा उचक कर देखने लगे पडौस की दीवार के उस पार हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ कि इस वर्ष बरसें बादल किसानों की उन फसलों पर जो देख रही हैं बाट भरपूर पैदावार के लिए ताकि धुँए भरे हमारे शहर में पहुँचे तादाद में पैदावार और हमारे जेब पर ना पड़े मार और हम भरवा सकें अपने वाहनों में पेट्रोल और धुँआ करने के लिए हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ कि टूटे ना एक भी सितारा इस आकाश की ओढनी से लबालब रहे आकाश की ओढनी सितारों से ताकि ढकी रहे धरती उस ओढनी की छाँव से कि एक भी उल्कापिण्ड धरती की छाती पर गिर कर ना करे विलाप हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ देश के उस पार भी आबोहवा चलती रहे ठण्डी और सुखद कि सरहद पर बची रहे गोलियाँ ताकि एक भी चिंगारी हमारी या उनकी सरहद पर घास के एक भी टुकड़े को जला ना सके । हम करते ही नहीं है प्रार्थनाएँ कि धरती पर जीने वाले हर एक इंसान को मुहैय्या हो रोटी कपड़ा और मकान ताकि खाते वक्त रोटी, पहनते व