आत्मीय सम्बन्धों का खात्मा है मीटू माँ के ज़माने की बातें हैं और हमारे ज़माने में वो संवादों से तो कभी इशारों से बता या करती थी कि मर्द और औरत का रिश्ता रुई और आग का रिश्ता होता है | मैं हमेशा ही माँ से उलझ जाया करती थी | भला ये भी कोई रिश्ता है | मैं अम्मा से बहस कर लेती – “ बाबा से रिश्ता होता है भाई का भी रिश्ता होता है, बेटे का भी,जवाई का भी और दोस्त का भी रिश्ता होता है जो मर्द हैं ” भले ही हमारी भारतीय संस्कृति में पर-पुरुष के लिए मित्र का स्थान नहीं रहा पर अब हर किसी पराए मर्द को भाई कहने का ज़माना गया | यूं पर-पुरुष से रिश्तों की कोई ख़ास पहल नहीं कर पाई पर बेटियों के ज़माने तक आते आते इन रिश्तो की परिभाषा और भी बदल गई | कच्ची जवानी की उम्र से ही लड़के लड़कियों का साथ – साथ पढना, देर रात पढाई के बहाने पढना, साथ-साथ कॉ लेज टूर पर जाना मेरे अन्दर छिपा माँ का मन प्रश्नों से हलकान हुआ जाता था | मैं आखोँ ही आखों मे बे टियों से प्रश्न करती और बेटि यों ने आँखों ही आँखों में मेरे प्रश्नों की प्यास बुझा दी थी | हैरानी तो तब हुई जब छोटी बेटी को पुणे मे केवल लडकियों वाले होस
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मेरे पर्स मे इतना कचरा क्यों है ? उस दिन दवाई के दुकान पर खड़ी थी | पर्स मे से डॉक्टर का पर्चा निकालने के लिए हाथ डाला | ये क्या.... ? पर्चा तो हाथ लगा नहीं पर एक जेब मे खाए हुई दवाई के मुड़े-तुड़े चमकीले रैपर थे | दूसरे जेब मे हाथ डाला तो टॉफी के थे | तीसरे जेब मे हाथ डाला तो हाथ पोंछा हुआ मुडा-तुड़ा टिश्यू पेपर था | हद तो तब हो गई जब एक थैली मे लिपटा केले का छिलका भी मेरे पर्स मे शोभायमान था | जैसे-तैसे डॉक्टर द्वारा लिखा पर्चा तो पर्स मे मिल गया पर मुझे सोचने को मजबूर होना पड़ा कि आखिर मेरे पर्स मे इतना कचरा क्यों है ? स्वच्छता अभियान कोई आज की मुहिम नहीं | आज से 40 साल पहले भी मैंने अपने सहपाठियों के साथ मिलकर स्कूल के वार्षिकोत्सव में कव्वाली गाई थी – “ भई कूड़ा मत फेंको...आहा... कि कचरा मत फेंको....ओहो....कि फेंको तो डिब्बे के अंदर...भई मस्त कलंदर....दमादम मस्त कलंदर..... ” आज 40 साल बाद भी गीत वही है कव्वाली वही है पर डिब्बा नदारद है | डिब्बा तब भी नहीं था...डिब्बा आज भी नहीं है | कहाँ है डिब्बा... ? तो फिर कचरा किसमे डालें ? मेरे पर्स मे खाई गई दवाई