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तू जड़ मैं चेतन

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मैं तेरे नेह में इस कदर भीग गई हूँ कि ज्यों रुई कि बाती वसा में भीगती है और दिप-दिप जलती है तम से लड़ती है तेरा निरंतर नेह मेरी आत्मा को भिगो रहा है निरंतर और मेरी देह का सिरा मेरा मस्तिष्क दिप-दिप जल रहा है संघर्ष रत है तम से वलय प्रकाश का चारों ओर ओ ! मेरे नेह के स्त्रोत जिस क्षण रुकेगी तेरी नेह धारा देख मेरी आत्मा भी सूख जायेगी और मस्तिष्क प्रदीप्त नही होगा उसी क्षण सोच ! क्या हश्र होगा मेरा मैं तो जड़ हूँ और तू चेतन देखना मैं ओर भी जड़ हो जाऊंगी (दीपावली की रात )