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Showing posts from February, 2010

माँ जानती है

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माँ जानती है नन्हा सीखा है चलना घु टरुं-घुटरुं चलेगा दौड़ेगा लग ना जाये चोट इसलिए हटा लेती है घर के सभी फर्नीचर रास्ते से बना देती पूरे घर को खेल का मैदान माँ जानती है बेटा सीखने लगा है अक्षर जाने लगा है स्कूल हाथ मे पेंसिल लिए खींचेगा लकीरे इसलिए ठोक देती है बो र्ड घर की सारी दीवारो पर बना देती है पूरे घर को स्कूल को ब्लैक बोर्ड माँ जानती है बेटा लेने लगा है सपने आँखों ही आँखों मे बसने लगी है अप्सरा इसलिए बांधकर उसके सिर पर सेहरा कमरों की दीवारो पर लिख देती है प्रेम-कविताएँ और खींच कर परदे दरवाजों पर खुद छिप जाती है परदों के पा र माँ जानती है बेटा बन गया है पिता दो बच्चो का गृहस्थाश्रम के भंवर मे फंस गया है इस कदर कि उठा नहीं सकता बोझ बूढी माँ की खांसती देह का इसलिए माँ छोड देती है अपनी देह भी हौले-हौले और मुक्त हो जाती है हर जिम्मे से संगीता सेठी (मोज़िला फायरफौक्स की वर्कशौप में )

हर नस की रक्षा में हूँ ओ ! पुरुष !

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तूने सदा मुझे अपनी जूती तले दबाया और मैंने हमेशा तुम्हारी धमनिओं में बहना चाहा तू न जाने क्यों मुझे देखते रहे बेचारी समझ कर और बंद करके उस कोटडी में वीरता के परचम फहराते रहे इतना दंभ था पुरुष तुझमें फिर भी तेरा माथा झुकता रहा कभी तिलक के बहाने तो कभी आर्शीवाद के बहाने कभी तेरी कलाई मेरे सामने आ गयी याचना बन कर रक्षा की मैं तेरी रक्षा के लिए तेरे सिर से लेकर पाँव तक बहती रही और जब पहुंची पाँव तक तो तू समझ बैठा मुझे पाँव की चीज़ पर मैं तो तेरे हर अंग की हर नस की रक्षा में हूँ ओ ! पुरुष !