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नाद

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ये जो नाद बाहर है भीतर क्यों नहीं ये जो नाद भीतर है बाहर क्यों नहीं क्यों ये नाद ऊपर है नीचे नहीं क्यों ये नाद नीचे है ऊपर नहीं क्यों ये नाद हिलोरें मारता वाष्प नहीं बाहर के नाद अंदर आओ तुम अंदर के नाद बाहर आओ तुम उतरो नीचे आसमां से ओ नाद चलो तुम आसमां में मुझ संग ओ नाद एकमेक हो जाएं हम कि एक ही हो नाद खूबसूरत ब्रह्मांड की कल्पना में कुछ करें समानुभूति स इस धरती पर

ईदगाह से मंगलसूत्र तक

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मुंशी प्रेम चन्द के गाँव  “  लम्ही  ”  से लौटकर) ईदगाह से मंगलसूत्र तक   बचपन की आँखें हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में ईदगाह कहानी पढ्कर खुलती है और यौवन तक आते-आते साहित्य में रुचि ना रखने वाला भी गोदान और रंगभूमि पढते हुए गाहे-बगाहे मुंशी प्रेमचन्द से परिचित हो जाता है । साहित्य में रुचि रखने वाला तो मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य का दीवाना है । इस दीवानगी में मुंशी प्रेमचन्द के गाँव के दर्शन हो जाएँ   तो क्या कहने । अवसर था नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इन्डिया की तरफ से आयोजित आजमगढ में दो दिवसीय बाल-साहित्य संबंधी कार्यशाला का । 31 जुलाई को दिल्ली के लिए वापसी थी और 31 जुलाई को ही मुंशी प्रेमचन्द की पुण्य-तिथि भी थी और हम साहित्यकारों की टोली मुंशी प्रेमचन्द के गाँव के नज़दीक से गुजर कर । यह कैसे संभव हो सकता है हम  साहित्यकारों के लिए । हमारी गाड़ियाँ लम्ही गाँव की तरफ घूमी तो मन प्रफुल्लित था । साहित्यकारों की टोली में मानस रंजन महापात्र, दिविक रमेश, आबिद सुरति, कुसुम लता सिंह, रिज़वाना सैफ, डा. हेमंत एवं फोटोग्राफर सर्वेश शामिल थी। मुंशी प्रेमचन्द के घर के सामने हमारी गाड़ियाँ रुकी तो स्था

जर्मन लेखक की स्टोरी संग कहानी कहन

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स्टोरी टेलिंग सेशन यूं तो स्टोरी टेलिंग सेशन करते हुए मुझे दो दशक से ज्यादा हो गए हैं | हर बार मेरा स्टोरी टेलिंग सेशन पिछले वाले से कुछ ज्यादा अच्छा  होता है | अपने बच्चों को कहानी सुनाने से ये सिलसिला शुरू हुआ और स्कूल के छात्रों और मोहल्ले के बच्चों, विश्व पुस्तक मेला के बच्चों, बुकरू फेस्टिवल और जूनियर राइटर बग चिल्ड्रेन फेस्टिवल और फिर अनेक उत्सवों में स्टोरी टेलिंग हुआ | धीरे धीरे मेरा यूट्यूब चैनल  भी बन गया | मुझे खिलौनों के साथ कहानी सुनाना अच्छा लगने लगा | अमेरिका से लाया पांडा मेरा दोस्त बन गया | कोरोना काल में यह पांडा मुझसे बिछड़ गया | यह  बीकानेर रह गया और मैं मुंबई चली गई तो मुंबई में मुझे नई दोस्त फ्लोरा मिली |  इस बार सृष्टि अमेरिका से आई तो मुझे अपनी फ्रीलोक इवेंट की कहानी सुनाने लगी | उसने मुझे जर्मनी लेखक की लिखी हुई बच्चों की किताब दिखाई जिसे उसने बोस्टन के इवेंट से खरीदा था | वो उस लेखक से मिली और उसके हस्ताक्षर उस किताब पर लिए थे | सृष्टि ने किताब अपनी हवाई यात्रा में पूरी पढ़ ली थी | वर्तमान परिप्रेक्ष्य की यह कहानी कम्प्यूटर के कारनामों पर

सबकी अपनी दुनिया है

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कविता सबकी अपनी दुनिया है सबकी अपनी दुनिया है पर साझी सबकी दुनिया है अलग अलग हैं रंग कूची में भांति भांति के भाव हैं मन में हल्के रंग से तुम रंग देना मेरी गाढी दुनिया है पर तस्वीर में साझी दुनिया है सबकी अपनी दुनिया है । पुर्व दिशा में मैं उड़ जाऊँ और पश्चिम में तुम विचरो उत्तर दक्षिण घूम के आओ दिन भर अपनी दुनिया है पर शाम को साझी दुनिया है सबकी अपनी दुनिया है l तानपुरा सप्तक में बोले तबला ताक धिना धिन बोले पूंगी बाजा स्वर में घोले हर साज की अपनी दुनिया है पर गीतों की साझी दुनिया है सबकी अपनी दुनिया है । पर साझी सबकी दुनिया है संगीता सेठी
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  कर दो कण मुझे  22:52 (1 minute ago)              छा जाओ तुम कि जैसे छा जाता है बादल आसमान में  तन जाओ तुम  कि जैसे तन जाता है  आसमान धरती पर समो लो तुम  कि जैसे समो लेता है  सागर नदिया को कर दो कण मुझे  कि जैसे हो जाती है चट्टान  दुखों  से घिस कर            
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                                                सोलो ट्रिप और ये लड़कियां भारत में पर्यटन कहाँ अकेले होता है, गर हुआ भी तो मेले मगरे, तीर्थ-मंदिर , धर्म के नाम पैदल चलकर जयकारे लगाते हुए चाची बुआ ताई मामी भाभी भैया जिज्जी या मोहल्ले भर के लोग - लुगाइयों के संग झुण्ड में यात्रा करते हुए आनंदित हुआ जाता है | अधिकाँश लोगों को तो मालूम भी नहीं कि इसे ही पर्यटन कहा जाता है | पर मैं इसे खालिस पर्यटन ही मानती हूँ | मोहल्ल्ले की तमाम औरतें जब अपनी अंटी से पइसा निकालते हुए मेले में खरीददारी करती हैं तो उनका रोमांच देखने लायक होता है | दूसरे दौर में सरकारी कर्मियों के घुमक्कड़ी अलाउंस के चलते एकल परिवार के साथ पर्यटन उभरा जिसमें माँ-पापा और दो बच्चों का साथ रहे | ज्यादा हुआ तो एक दोस्त का परिवार भी साथ ले लिया | पर संयुक्त परिवार के मुखिया और घर भर की औरतों ने मुँह पर हाथ रख कर खूब कोसा इस परम्परा को “ हा | देखो बेसर्मों को अकेले मुंह उठाया और चल दिए ..घूमने की आग लगी है ...” इस दौर में हम खूब घूमे | राजेंद्र जी का साथ हो और क्या चाहिए किसी को | दो बेटियाँ सृष्टि आस्था ...गोद में लेने की अवस्था से
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  ज़िंदगी ज़िंदगी आती ही नहीं ढर्रे पर कुलाचें भरती हिरणी-सी थमती नहीं धरती पर   नदियां आती ही नहीं किनारे पर मारती उछालें झरने-सी मिलती ही नहीं सागर पर   बादल उतरते ही नहीं पहाड़ों पर तैरते रहते हैं हवा में बरसते ही नहीं धरती पर   तारे टूटते ही नहीं धरती पर चमकते रहते हैं आसमान में कि कोई मांग ना ले इच्छा मन भर