ईदगाह से मंगलसूत्र तक
मुंशी प्रेम चन्द के गाँव “ लम्ही ” से लौटकर)
ईदगाह से मंगलसूत्र तक
बचपन की आँखें हिन्दी की पाठ्यपुस्तक में ईदगाह कहानी पढ्कर खुलती है और यौवन तक आते-आते साहित्य में रुचि ना रखने वाला भी गोदान और रंगभूमि पढते हुए गाहे-बगाहे मुंशी प्रेमचन्द से परिचित हो जाता है । साहित्य में रुचि रखने वाला तो मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य का दीवाना है । इस दीवानगी में मुंशी प्रेमचन्द के गाँव के दर्शन हो जाएँ तो क्या कहने ।
अवसर था नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इन्डिया की तरफ से आयोजित आजमगढ में दो दिवसीय बाल-साहित्य संबंधी कार्यशाला का । 31 जुलाई को दिल्ली के लिए वापसी थी और 31 जुलाई को ही मुंशी प्रेमचन्द की पुण्य-तिथि भी थी और हम साहित्यकारों की टोली मुंशी प्रेमचन्द के गाँव के नज़दीक से गुजर कर । यह कैसे संभव हो सकता है हम साहित्यकारों के लिए । हमारी गाड़ियाँ लम्ही गाँव की तरफ घूमी तो मन प्रफुल्लित था । साहित्यकारों की टोली में मानस रंजन महापात्र, दिविक रमेश, आबिद सुरति, कुसुम लता सिंह, रिज़वाना सैफ, डा. हेमंत एवं फोटोग्राफर सर्वेश शामिल थी।
मुंशी प्रेमचन्द के घर के सामने हमारी गाड़ियाँ रुकी तो स्थानीय साहित्यकारों के प्रमुख संजय श्रीवास्तव सहित कईं साहित्यकार स्वागत में उपस्थित थे । हम सभी ने मुंशी प्रेमचन्द की मूर्ति को माला पहनाई । जहाँ मुंशी प्रेमचन्द की मूर्ति स्थापित की गई थी वहाँ उनके मकान का वो कमरा हुआ करता था जिसमें उनका जन्म हुआ था । शेष मकान का हिस्सा ज्यों का त्यों पड़ा है जो फिलहाल बन्द था । उस स्थान पर रूक कर सभी को भला लग रहा था । साहित्यकार बन्धुओं के लिए तो यह् तीर्थ से कम नहीं था ।
स्थानीय साहित्यकार हमें गाँव की तरफ ले गए । प्रेमचन्द के घर की गली से होते हुए लहराती हुई सकड़ी गली से हम गाँव की ओर होते हुए गए तो एक बहुत बड़े चौड़े सरोवरनुमा मैदान में रास्ता खुला । उसके किनारे-किनारे चौड़ी सड़क पर चलते हुए हम फिर गाँव की गलियों में घुस रहे थे जो अंतत:एक मैदान में खुली । वहाँ के लोगों से मालूम चला कि इस मैदान में रामलीला खेली जाती है । दांयीं ओर लंकानुमा मकान था और बायीं ओर बड़ का पेड़ और बीच में एक मन्दिर जहाँ औरतें विरह के गीत गाती हैं ।
हमारा दल चाह रहा था कि गाँव का कोई ऐसा आदमी मिले जो प्रेमचन्द के ज़माने का हो और जिसने प्रेमचन्द को देखा हो । वहाँ के लोगों से पूछा तो पता चला कि हाँ ! एक व्यक्ति है जिसने प्रेमचन्द को देखा है । हम सभी उत्सुक थे उससे मिलने को ।कुछ लोगों को उसे ढूँढने भेजा पर वो नहीं मिला । हम लौट रहे थे गाड़ियों की ओर तो रास्ते में एक खोखेनुमा ढाबे पर नीम्बू चाय का आग्रह किया गया । पीपल के पेड़ के नीचे खोखा....खोखे में टी.वी.....और टी.वी. को देखने के लिए उमड़े गाँववासी और भीड़ में दबा चायवाला अपनी चाय बनाने में मशगूल.....चाय हमें दीपकनुमा प्याली में दी गई । वो नींबू-चाय इतनी स्वाद,,,कि पहले कभी नहीं पी ।
अभी चाय की चुस्कियों का आनन्द ले रहे थे कि एक साइकिल पर सवार 80-85 वर्षीय व्यक्ति आया बोला-“ हमें कुछ साहित्यकार ढूँढत रहित.....हाँ ! हाँ! हम देखे मुंशी प्रेमचन्द को ” हम सबकी खुशी का पारवार ना रहा । हम में से किसी ने उसकी साइकिल पकड़ा, तो कोई उसे पकड़ कर पेड़ की छाया में ले गया । मैने तो उन्हें कन्धों से पकड़ कर पेड़ के नीचे बनी चौकी पर ही बैठा दिया । प्रश्न-दर-प्रश्न का सिलसिला चला । उसका नाम था “रामनाथन ”। रामनाथन की स्मृतियों में मुंशी प्रेमचन्द खद्दर का कुर्ता पाजामा पहने अपने घर के कमरे की खिड़की में बैठे दिखाई देते हैं । वो खिड़की गली में खुलती थी जहाँ से गुजरते लोग उन्हें देख सकते थे । रामनाथ कहते हैं उनकी मृत्यु हुई तब वो चौथी कक्षा में पढ़ते थे । आगे वो कहते हैं कि “मैं झूठ नहीं बोलूँगा ,इससे ज्यादा मुझे याद नहीं है। हाँ ! एक बार उनकी पत्नी शिवरानी हमारे स्कूल में मिठाई बाँटने आई थी । पर वो किस खुशी में आई थी, यह हमें याद नहीं ” मुंशी प्रेमचन्द के कईं किस्से-कहानियाँ थे उनके पास जो उन्होंने गाँव के पुरखों से सुन-सुनकर अपनी स्मृति में संजोये हुए थे । मुंशी प्रेमचन्द अपने गाँव में पाँच नामों से जाने जाते रहे हैं –“ नवाब राय ,धनपत राय , प्रेमचन्द , गुच्चु और अफसाना ” रामनाथन बताते हैं कि गाँव के लोग प्रेमचन्द के बारे में कहते हैं कि “ खेत-वेत पर जात नही बस किताब लिखब-पढब करब करिन ”। रामनाथन प्रेमचन्द की बातें सुनासुना कर खुश हो रहे थे तो हम भी प्रेमचन्द की अनौपचारिक बातें सुन-सुन कर अप्नी प्रसन्नता व्यक्त कर रहे थे ।
मुंशी प्रेमचन्द के “स्मारक-परिसर ” में आर्ट गैलरी थी, जहाँ उनकी कुछ तस्वीरें लगी थी । इसी गैलरी में “ मंगल सूत्र ” पुस्तक का कवर पेज था जो उनकी अंतिम पुस्तक थी और पूरी ना हो सकी । उनकी पहली पुस्तक “ सोजे-वतन ”का कवर पेज था जो अंग्रेजों द्वारा जला दी गई थी । उनके घर से कुछ कदम की दूरी पर प्रेमचन्द मार्ग दर्शन केन्द्र द्वारा संचालित पुस्त्कालय भीए था जिसमें प्रेमचन्द की दुर्लभ कृतियों का संग्रह था ।
मन था कि अभी और रूकें प्रेमचन्द के गाँव में.....अभी और जाने उनके अनछुए पहलुओं को...अभी और खोजें उनके लेखन के दर्द..पर समय की सीमा में बंधना इंसान की नियति है और हमारी गाड़ी दिल्ली जाने के लिए इंतज़ार कर रही थी । लम्ही गाँव से निकलते ही चौराहे पर मुंशी प्रेमचन्द की मूर्ति थी और गोलचक्कर में दीवार के प्रत्येक खण्ड पर उनकी रचना का नाम और चित्र बना था । हमारी बस ने उस चौराहे का पूरा चक्कर लगाया तो हमारे सामने उनकी कहानियाँ ईदगाह, कफन, पूस की रात, बड़े भाईसाहब ,शतरंज के खिलाड़ी, गिल्ली-डण्डा और उपन्यासों में गबन, गोदान, निर्मला, सेवा-सदन,प्रतिज्ञा एक-एक करके आँखों के सामने से घूम गए । साथ ही वो कथानक जो हम बचपन् से लेकर अब तक पढ़ते आए हैं । यह चौराहा अदभुत था जिसके चारों तरफ चक्कर लगाने पर लगा कि हम प्रेमचन्द का पूरा सहित्य ही पढ़ आए हैं ।
हम अपने दिलों में मुंशी प्रेमचन्द और उनके गाँव “ लम्ही ” की यादें मन में संजोए लौट आए अपने गाँव ।
संगीता सेठी
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