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Showing posts from May, 2013
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मैं  नही जानती थी कि प्रेम क्या होता है बस हर समय एक शिशु में चाह्त में डूबती उतराती रहती थी ये जानते हुए भी कि शिशु का आना तो ईशवर का आना होता है धरती पर और ईशवर कब आते है मुझ पापिनी के लिए धरती पर   हाँ ! वो समय था जब मैने चाहा था ईश्वर से एक अबोध शिशु सा चेहरा एक चमत्कार की क्षीण सी रेखा मेरी आँखों में कौंधी थी मैं भागी थी उस रेखा के पीछे भागने और हाँफने की बीच हुए हाद्सों में तुम बीच रास्तों में गिरे मेरे मांस के लोथड़े उठाते चलते रहे मैने पीछे मुड़ कर देखा तुम्हारे हाथ भी लहू से लाल हो गए थे   चमत्कार की वो क्षीण रेखा गहराती गई ईश्वर को आना ही पड़ा मुझ पापिनी के पेट से तुम जो थे ईश्वर के दूत-से मेरे इर्द – गिर्द   मुझे तुम्हारे चेहरे में वो शिशु नज़र आया था कितने कर्ज़ हो गए हैं मुझ पर तुम्हारे एक-एक कर उतार दूँगी वो सब कर्ज़ पर माँ होने का कर्ज़ कैसे चुका पाऊँगी ता-उम्र रहूँगी कर्ज़दार तुम्हारी
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तू जब भी आता है मुझे याद आता है मै कर्ज़दार हूँ तेरी हर बार तेरे आने पर उठती हूँ नींद से सजती हूँ संवरती हूँ सोचती हूँ आज तेरा कर्ज़ उतार ही आऊँ सज संवर कर गुनगुनाती खुद को तैयार करती हूँ तेरे कोड़े खाने के लिए ना जाने कितने चाबुक से उतरेगा कर्ज़ तेरा काँपते हुए हाथ लरज़ते हुए होंठ चिपकी हुई ज़ुबान सहमा हुआ दिल बन्द आँखें नम - सी फूल - से स्पर्श से  खुल जाती हैं मेरे काँपते हाथ प्रार्थना के लिए जुड़ जाते हैं उंगली के पोरों का स्पर्श मेरे लरज़ते होठों पर ठण्डक दे जाता है तेरी खामोशपन चिपकी हुई जबान को मत्रोच्चारण दे जाता है सहमा हुआ दिल  तेरे कदमों में झुक जाता है बन्द आँखे खुलती हैं गर्म धारा के साथ सामने धवल वस्त्रों में तू दूत नज़र आता है सुना है तेरी देहरी पर कर्ज़ माफ होते हैं
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मै नींव तेरे मकान की कभी खुदी कभी चिनी हिली नहीं वहीं रही बनी रही बनी रही मै नींव तेरे मकान की मैं चाह कभी बनी नहीं मकान के कंगूरे की सजाती रही औरों को अन्धेरे में मैं खुद रही मै नींव तेरे मकान की उन पत्तियों-सी पेड़ की धूप रोक छांह बनी झुलसीजब समय चक्र में पीली बन मैं झड़ चली  मै नींव तेरे मकान की उस नदी-सी कल-कल बही प्रेम प्यार लुटा चली सोख दुनिया ने जब ली पैरों तले मैं रौन्दी गई मै नींव तेरे मकान की तेरे पैरों को ज़मीन दी तेरे पंखों को उड़ान दी जब तुझे लगा कि व्यर्थ हूँ मोक्ष आत्मा-सी हुई मै नींव तेरे मकान की
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माँ बन गई है आकाश माँ कभी बन्द कली कभी खिला फूल कभी बन जाती है महकता बाग सराबोर रहे खुश्बू से बचपन माँ कभी पगडण्डी कभी सड़क कभी बन जाती है रेत का टीला धंस जाए पाँव और सधा रहे यौवन माँ कभी खुशी उलीचती नदी कभी दुख समोती सागर कभी बन जाती है झरना स्नेह का भीगता रहे जीवन छमा-छम माँ कभी पेड़ कभी फल कभी बनकर धरती ओढ लेती दूब चुभे ना एक भी कंकर इस जीवन माँ अब नहीं है जहाँ में फिर भी वो कभी चाँद कभी तारे ओढनी-सा सज कर बन गई है आकाश ताकि आती रहे हमें नींद सुखद