यात्रा-संस्मरण
साइकिलों का शहर है
बर्लिन
जर्मन जाने के प्रति
जितना उत्साह और उत्सुकता थी उसने मुझे जर्मन यात्रा के दौरान दुगुना बन कर मुझे
रोमांच से भरपूर सराबोर कर दिया था। पहली विदेश यात्रा….वो भी यूरोप की…..उस पर बेटी सृष्टि के सेमिनार
में बुलावा वैसे भी किसी रोमांच से
कम नहीं था उस पर दिल्ली एयरपोर्ट से एम्सटर्डम
एयरपोर्ट तक की हवाई यात्रा.... एम्सटर्डम एयरपोर्ट पर लम्बी कदमताल करके बर्लिन के
लिए छोटे एयरक्राफ्ट से प्रस्थान ने हमारे रोमांच में इज़ाफा ही किया था । पर ये
रोमांच कदम दर कदम बढता ही जाएगा इसका मुझे अन्दाज़ ही नहीं था ।
बर्लिन एयरपोर्ट पर
पहुँचते ही हमने चारों दिशाओं में नज़र घुमाई तो मैं और सृष्टि एक दूसरे को देखकर
मुस्कुराए । अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए हमने बस ली । सब कुछ नया-नया लग रहा था ।
एक मोड़ पर एक युवती साइकिल पर दिखी । मेरी आँखें आश्चर्य से फैल गई । विदेशी
चकाचौंध में साइकिल का क्या काम ? मैं खुद से ही बात कर रही थी । पर ज्यों-ज्यों
हमारी बस शहर की दूरियाँ नापती जा रही थी साईकिल के नज़ारों में इज़ाफा होता जा रहा
था | “ज़ूलॉस्चिकल गार्टन
”पर हमें मेट्रो पकड़नी थी ।
मेट्रो स्टेशन पर अलग ही नज़ारा था । एक व्यक्ति को मेट्रो स्टेशन पर साइकिल लेकर
जाते देख मेरे मन में ख्याल आया कि मेट्रो स्टेशन पर साइकिल का क्या काम ? अभी सोच
ही रही थी कि एक मेट्रो ट्रेन आई और वो व्यक्ति साइकिल लेकर मेट्रो ट्रेन में चढ
गया । मैं हैरान कि ट्रेन में भी साइकिल !! मैने गौर किया कि मेट्रो ट्रेन के उस
डिब्बे पर साइकिल का निशान बना हुआ था । यानि ये तो साफ मेट्रो ट्रेन में साइकिल के
लिए प्रावधान ही कर रखा है । मेट्रो ट्रेन में बैठ कर हम अपनी मंज़िल वाले स्टेशन
“ मोहर्नस्त्राबे ” पर पहुँचे तब तक हमारे मन में
यह इच्छा जागृत हो चुकी थी कि मैं भी साइकिल चलाऊँ । पर यहाँ मेरे पास साइकिल कहाँ
। यहाँ कैसे उपलब्ध होगी साइकिल ? और अपनी रोलिंग सामान को सड़क पर घसीटते हुए मैं
अपने बेटे स्पन्दन को गोद में लिए सृष्टि के साथ अपने बुकिंग किए हुए होटल के सामने
खड़े थे । होटल के सामने ही ढेर सारी साइकिलें खडी थी और लिखा था “ रैण्ट ए बाइक ” तो यहाँ साइकिलें भी किराए पर
मिलती है । वाह ! मेरा मन बल्लियों उछल पड़ा । यानि मैं अपने होटल से ही साइकिल
किराए पर ले सकती थी । मेरे मन में दृश्य देखकर ही विचार बनते जा रहे थे । ख्याल
बना कि केवल पर्यटक ही चलाते हैं फन के लिए साइकिल । मेरा मन हुआ कि मैं भी चलाऊँगी
साइकिल पर दूसरे ही क्षण विचार आया कि अपने तीन साल के बेटे को कैसे मैनेज करूँगी ।
उधर दूसरे काम भी होते जा रहे थे---सब कुछ नया था हमारे लिए ..होटल में चेक
इन...मैग्नेटिक डोर-की....गोरी चमड़ी और नीली आँखों वाली रिसेपशनिस्ट.... सृष्टि तो
व्यस्त हो गई अपनी सेमिनार के कामों में और मेरे पास बर्लिन में 9 दिन थे । हर दिन
नया...हर जगह नई और हर काम भी नया था । साइकिल को लेकर भी हर दिन नया विचार आ रहा
था । मेट्रो स्टेशन पर मैं देख रही थी कि लोग अपनी साइकिल लिफ़्ट से भी प्लेट्फॉर्म
पर लेकर आ रहे थे । पर कुछ लोग सीढियों से भी साइकिल उतारने या चढाने में नहीं हिचक
रहे थे । मैं इतनी हैरान थी साइकिल के कण्सेप्ट को लेकर । अब नया विचार यह बना कि
केवल पर्यटक ही नहीं चलाते साइकिल बल्कि यहाँ तो सब अपने आने जाने के लिए साइकिल ही
इस्तेमाल करते हैं । गर ज्यादा दूरी हो तो मेट्रो ट्रेन में भी तो रखने का प्रावधान
है ।

चार दिन हो गए थे
बर्लिन की सड़कों को नापते हुए ....कभी सिटी सफारी बस से...तो कभी स्प्री नदी में
नाव पर...कभी मेट्रो से यूनिवर्सिटी में हिन्दी प्रोफेसर को ढूँढने की मुहिम....तो
कभी पैदल ही बर्लिन वॉल तक....पाँचवे दिन मन हुआ बर्लिन से बाहर जाएँ....तो 250
किमी. दूर पोट्सडैम चुना । स्टेशन से बाहर निकलते ही अच्छा-खासा साइकिल-स्टैण्ड का
नज़ारा था । यहाँ पर मुझे हर आदमी-औरत साइकिल पर नज़र आया । माँ के साथ बाज़ार जाते
बच्चे भी छोटी साइकिल पर नज़र आए । और हाँ छोटे बच्चे को आगे तो कहीं पीछे
कुर्सीनुमा खास सीट पर बैठाए साइकिल-सवार दिखाई दिए । मुँह से निकला वाह ! और मुझे
राह मिल गई कि मेरा बेटा स्पन्दन मेरे पीछे कैसे साइकिल पर बैठेगा ।
छ्ठे दिन के प्रवास
में मेरा एक विचार और पुखता हो गया कि यहाँ सड़कों पर पेट्रोल वाले दुपहिया वाहन
नहीं हैं यानि सड़क पर कार है या साइकिल है । दुपहिया वाहन के नाम पर या तो पुलिस की
इक्का-दुक्का मोटरसाइकिल थी या व्यावसायिक सामान ढोने के लिए पीछे बॉक्स लगाए
स्कूटर । बाकी लोग अपना काम करने के लिए साइकिल का ही इस्तेमाल करते हैं । मुझे बड़ी
उम्र की महिलाएँ भी सब्जी ले जाती और अन्य चीज़ों की खरीददारी करती नज़र आई । मैं फिर
से अपने देश की तुलना करने लगी कि हम छोटे से काम के लिए भी मोटरसाइकिल स्कूटर तो
क्या कार पर अपनी झूठी शान का प्रदर्शन करते नज़र आते है । “गो-ग्रीन” का सही नज़ारा तो मुझे यहीं
नज़र आया ।
सातवें दिन मुझे भी
साइकिल चलानी थी । मैंने सोचा अपने होटल से ही ले लूँगी पर उसके पास बच्चे को पीछे
बैठाने वाली स्पेशल सीट वाली साइकिल नहीं थी । इतने दिन में मुझे अन्दाज़ हो गया था
कि साइकिल कहाँ-कहाँ किराए पर मिल रही है । “ मोहर्नस्त्राबे ” से सीधा “व्हीलम्स्त्रासे ” की तरफ एक सिटी मार्केट स्टोर के बाहर
साइकिल ही साइकिल थी । बच्चे को पीछे बैठाने वाली स्पेशल सीट वाली साइकिल भी थी ।
बस फिर क्या था 10 यूरो साइकिल के और 5 यूरो बच्चे की सीट के थे । पर क्या
सिक्योरिटी रखेंगे इसका अन्दाज़ नहीं था । सिक्योरिटी के नाम पर उस स्टोर की मल्लिका
पासपॉर्ट मांग रही थी । मैंने निवेदन किया कि मेरा दूसरा आइ.डी. ले लो । वो भली
महिला थी । मान गई ।
आज मेरी बारी थी
बर्लिन की सड़कों पर साइकिल चलाने की । स्पन्दन को साइकिल के पीछे कुर्सी पर बैठाया
गया । स्टोर के हेल्पर ने उसके पैरों को कुर्सी पर लगे फुट रेस्ट से जूते बाँधे,कमर
पर बेल्टॅ बाँधी , सिर पर हेलमेट बाँधा । स्टोर के हेल्पर ने मुझे ताला-चाबी के गुर
बताते हुए साइकिल की चाबी सौंपी ।
शुरु में तो साइकिल चलाने में थोड़ी दिक्कत आई
क्योंकि एक तो वो गियर वाली साइकिल थी और उसका पैडल बैक नही जाता था । दूसरी
ट्रेफिक की भी दिक्कत थी । हमारे देश में बांए तरफ ट्रेफिक चलता है जबकि यहाँ दांए
तरफ ट्रेफिक चलता है । 10-15 मिनट बाद मैं नॉरमल हो पाई । बस कुछ दूरी के बाद चल
पड़ी मेरी साइकिल बर्लिन की सड़क पर फर्र-फर्र !! फिर जो साइकिल चली तो मुझे पता चला
कि कि यहाँ इतनी आसानी से कैसे सब साइकिल चलाते हैं । इतनी चिकनी सड़कें, ट्रेफिक के
सख्त नियम, इतनी अच्छी साइकिलें इस सफर को आसान बना रही थी। स्पन्दन पीछे बैठा
मुझसे पूछ रहा था “ मम्मा आपने हेलमेट क्यों नहीं
पहना ” मैं उसके प्रश्न पर चौंकी । “ छोटे बच्चे लगाते हैं हेलमेट
” मैंने उसके प्रश्न को शांत
किया ।

मम्मा-बेटा सड़कों पर
दांए-बाएं बर्लिन के हर कोने को छूना चाहते थे । यहूदियों की स्मारक से प्रीज़र
प्लाट्ज़ होते हुए विक्टोरिया टॉवर, बर्लिन वाल, डी.बी. बिल्डिंग, म्यूज़िक हॉल,
चर्च, वॉर मेमोरियल साइकिल चलाते हुए देखती जा रही थी। बीच में एक खूबसूरत पार्क को
देखकर स्पन्दन चिल्ला उठा “ यहाँ चलो मम्मा
!!”
सभी देशों के
राजदूतावासों को देखते हुए भारतीय राजदूतावास को देखकर तो मेरी साइकिल रुक ही गई ।
लाल रंग की बिल्डिंग पर सत्यमेव जयते देख कर रोमांचित हुई और सामने तिरंगा झण्डा
देखकर तो नतमस्तक हो गई । मैने गार्ड से पूछा “ क्या मैं फोटो ले सकती हूँ ?
”
“ चारदीवारी के बाहर से ले सकते
हैं ” -उसने कहा । शाम होने को थी
पर साइकिल के पैडल थम नहीं रहे थे । समय सीमा को बढाया नहीं जा सकता। पर बर्लिन
प्रवास के अंतिम दौर में साइकिल पर सफर रोमांचकारी रहा बल्कि यहाँ साइकिल चलाने का
राज़ भी समझ में आ गया ।
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