नहीं बाँच सकती कोई माँ


वो ज़माना चिट्ठी पत्री का

जब बांच नहीं सकती थी माँ

ज़माने भर की चिट्ठियाँ

बस रखती थी सरोकार

अपने बेटों की चिट्ठियों से

जो दूर देश गया था कमाने

सुन लेती थी अपने पति कि बाणी में

या घर की सबसे पढी लिखी बहू से

पर फिर भी उन्हें आँचल में छिपाकर

सुनने जाती थी

पड़ौस की गुड्डी या शन्नो से

तृप्त हो जाती थी आत्मा

और फिर से आँखें ताकती थी हर शाम

उस डाकिए को


इस कमजोरी से उबरी

माँ अब साक्षर होने लगी

चिट्ठियों के लफ्ज़ पह्चानने लगी

इधर बेटे बेटियों के लफ्ज़

होने लगे और गहरे

माँ को नमस्ते ! पापा को राम-राम !

और बाकी बातें

पढे लिखे भाई-बहनों के लिए

लिखी जाने लगी

माँ उन दो पंक्तियों को आँखों में समाए

संजोने लगी चिट्ठियाँ

एक लोहे के तार में

और जब तब निकाल कर पढ लेती

वो दो पंक्तियाँ

डाकिए का इंतज़ार रहता

अब भी आँखों में


माँ ने पढना लिखना शुरु किया

गहरे शब्दों के मर्म को जाना

बेटे-बेटियों की चिट्ठियाँ

अब उसकी समझ के भीतर थी

पर ये शब्द जल्द ही

एस.एम.एस.में बदल गए

मोबाइल उसकी पहुँच से

बाहर की चीज़ बन गया

अब हर रिंगटोन पर

अपने पोते से पूछती

किसका एस.एम.एस ?

क्या लिखा ?

कुछ नही

कम्पनी का है एस.एम.एस

आप नहीं समझोगी दादी माँ!

माँ को और ज़रूरत हुई

बच्चों को समझने की

उसने जमा लिए हाथ

की-बोर्ड पर

माउस क्लिक और लैपटॉप की

बन गई मल्लिका

जान लिए इंटरनेट से जुड़्ने के गुर

पैदा कर लिए अपने ई-मेल पते

बना लिए ब्लॉग

मेल और सैण्ड पर क्लिक हो गए

उसके बाएँ हाथ का खेल
भेजने लगी अपने इंटरनेटी दोस्तों को

मेल और सुन्दर संदेश

बच्चे बड़े हो गए हैं

चले गए गए हैं परदेस

माँ अपने ई.मेल पते देती है

बेटा सॉफ्ट्वेयर इंजीनीयर है

बेटी आर्कीटेक्चर के कोर्स में

है व्यस्त

हर रोज़ अपने लैपटॉप

पर देखती है स्क्रीन

आज तो आया होगा

कोई लम्बा संदेश

उसकी आँखें थक रही हैं

स्क्रीन के रेडिएशन पर

नज़र जमाए

पर नहीं आया कोई मेल

माँ चिट्ठी के ज़माने में

पहुँच गई है

जहाँ नहीं बाँच सकती कोई माँ

अपने बच्चों नहीं चिट्ठियाँ

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