माँ जानती है


माँ जानती है
नन्हा सीखा है
चलना घुटरुं-घुटरुं
चलेगा दौड़ेगा
लग ना जाये चोट
इसलिए हटा लेती है
घर के सभी फर्नीचर रास्ते से
बना देती पूरे घर को
खेल का मैदान
माँ जानती है
बेटा सीखने लगा है अक्षर
जाने लगा है स्कूल
हाथ मे पेंसिल लिए
खींचेगा लकीरे
इसलिए ठोक
देती है बोर्ड
घर की सारी दीवारो पर
बना देती है
पूरे घर को स्कूल
को ब्लैक बोर्ड
माँ जानती है
बेटा लेने लगा है
सपने आँखों ही आँखों मे
बसने लगी है अप्सरा
इसलिए बांधकर
उसके सिर पर सेहरा
कमरों की दीवारो पर
लिख देती है
प्रेम-कविताएँ
और खींच कर
परदे दरवाजों पर
खुद छिप
जाती है परदों के पार
माँ जानती है
बेटा बन गया है पिता
दो बच्चो का
गृहस्थाश्रम
के भंवर मे
फंस गया है
इस कदर
कि उठा नहीं सकता
बोझ बूढी माँ की
खांसती देह का
इसलिए माँ
छोड देती है
अपनी देह भी
हौले-हौले
और मुक्त हो जाती
है हर जिम्मे से
संगीता सेठी
(मोज़िला फायरफौक्स की वर्कशौप में )
कविता अत्यंत भावपूर्ण है. इसके अंतिम दो छंद न केवल माँ के लिए कष्टदायी हैं अपितु उन सब के लिए भी निराशाजनक हैं जो बुढ़ापे में अपनी माँ का सहारा नहीं बन सकते.
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