हर नस की रक्षा में हूँ ओ ! पुरुष !

तूने सदा मुझे
अपनी जूती तले दबाया
और मैंने हमेशा
तुम्हारी धमनिओं में
बहना चाहा
तू न जाने क्यों
मुझे देखते रहे
बेचारी समझ कर
और बंद करके
उस कोटडी में
वीरता के परचम
फहराते रहे
इतना दंभ था
पुरुष तुझमें
फिर भी तेरा माथा
झुकता रहा
कभी तिलक के बहाने
तो कभी
आर्शीवाद के बहाने
कभी तेरी कलाई
मेरे सामने आ गयी
याचना बन कर
रक्षा की
मैं तेरी रक्षा के लिए
तेरे सिर से लेकर
पाँव तक
बहती रही
और जब पहुंची पाँव तक
तो तू समझ बैठा
मुझे पाँव की चीज़
पर मैं तो
तेरे हर अंग की
हर नस की
रक्षा में हूँ
ओ ! पुरुष !
अपनी जूती तले दबाया
और मैंने हमेशा
तुम्हारी धमनिओं में
बहना चाहा
तू न जाने क्यों
मुझे देखते रहे
बेचारी समझ कर
और बंद करके
उस कोटडी में
वीरता के परचम
फहराते रहे
इतना दंभ था
पुरुष तुझमें
फिर भी तेरा माथा
झुकता रहा
कभी तिलक के बहाने
तो कभी
आर्शीवाद के बहाने
कभी तेरी कलाई
मेरे सामने आ गयी
याचना बन कर
रक्षा की
मैं तेरी रक्षा के लिए
तेरे सिर से लेकर
पाँव तक
बहती रही
और जब पहुंची पाँव तक
तो तू समझ बैठा
मुझे पाँव की चीज़
पर मैं तो
तेरे हर अंग की
हर नस की
रक्षा में हूँ
ओ ! पुरुष !
संगीता जी, बहुत अच्छी रचना है, लिखती रहें, लेकिन हर पुरुष निर्दयी नहीं है और हर औरत अबला नहीं होती !
ReplyDeleteव्यवसायी होते हुए भी दिल के मर्म को जानते ही नहीं बल्कि हौले से छू जाते है | रिश्तों को शब्दों में बखूबी पिरोया है कि दिल के गहरे में हलचल मचा दी है |
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